Monday, November 17, 2008

वीरेनदा के बारे में

अवैधानिक चेतावनी :
ये शायद साहित्य की दुनिया की पहली जीवनी है जिसमें जीवनी से पहले चेतावनी को महत्व दिया गया है। चेतावनी इसलिये क्योंकि भूल से भी कोई इसे वीरेन डंगवाल पर शोध या वीरेन डंगवाल समग्र समझने का धोखा ना खा जाये। यह शोध इसलिये नहीं है क्योंकि इसमें निष्कर्ष नहीं है कि वीरेन डंगवाल क्या हैं? उनकी सीमाएं और संभावनाएं कहाँ तक हैं? वगैरा.. यह ब्लॉग वीरेन डंगवाल समग्र इसलिये नहीं है, क्योंकि उन्हें देखने के लिये दो आंखें और समझने के लिये एक दिमाग नाकाफी है। ये ब्लॉग उनके बारे में मोहब्बत और श्रृद्धा के उद्वेगों का नतीजा है। इसमे दिमाग की कसरत की कसर रह जाने की भी मुक्कमल संभावना है। सो इसे संभल कर ही पढ़ा जाये। लेखक की तरफ़ से किसी बात की गारंटी नही है पर यहाँ जितना लिखा है, है सभी सच ही...


वीरेंद्र
डंगवाल मतलब वीरेनदा

ये आजाद ख्याल इंसान आजादीवाले साल ५ अगस्त १९४७ में कीर्तिनगर, टिहरी में (तब उत्तर प्रदेश में था अब उत्तराँचल प्रान्त में) पैदा हुआ था। उनकी माँ एक मिलनसार धर्मपरायण गृहणी थीं और पिता स्वर्गीय रघुनन्दन प्रसाद डंगवाल प्रदेश सरकार में कमिश्नरी के प्रथम श्रेणी अधिकारी।

उनकी रूचि कविताओं कहानियो दोनों में रही है। बाईस साल की उम्र में उन्होनें पहली रचना, एक कविता लिखी और फिर देश की तमाम स्तरीय साहित्यिक पत्र पत्रिकाओं में लगातार छपते रहे। उन्होनें १९७०- ७५ के बीच ही हिन्दी जगत में खासी शोहरत हासिल कर ली थी।

उनकी प्रसिद्ध कृतियों में हैं इसी दुनिया में (कविता संग्रह), नाजिम हिकमत की कवितायें (अनुवाद)।

अब तक उन्हें रघुवीर सहाय स्मृति पुरस्कार (1992), श्रीकान्त वर्मा स्मृति पुरस्कार (1994) तथा शमशेर सम्मान (२००२) मिल चुका है। पेशे से हिन्दी के प्रोफ़ेसर। शौक से बेइंतहा कामयाब पत्रकार। आत्मा से कवि। बुनियादी तौर पर एक अच्छे- सच्चे इंसान। उम्र ६० को छू चुकी। पत्नी रीता भी शिक्षक। दोनों बरेली में रहते हैं।

वीरेन बरेली कॉलेज में हिन्दी पढाते हैं। बरेली के अमर उजाला अख़बार के स्थानीय संपादक हैं। उनके दो बेटे प्रशांत और प्रफुल्ल कारपोरेट अधिकारी हैं और सेटल हो चुके हैं। शिक्षक वीरेनदा के लगभग सभी पुराने चेले आज बडे आदमी बन चुके हैं। दरअसल वीरेन जी को बडे आदमी बनाने संवारने का शौक है। उनकी भगवान् में काफी श्रद्धा है मगर वो भगवान् को मख्खन नहीं लगाते दुष्चक्र में सृष्टा में उनकी इसी नामवाली कविता दरअसल इसी तरह की सोच का नतीजा है। मुलाहिजा हो...

कमाल है तुम्हारी कारीगरी का भगवान,
क्या-क्या बना दिया, बना दिया क्या से क्या!
छिपकली को ही ले लो,कैसे पुरखोंकी बेटी
छत पर उल्टासरपट भागती छलती तुम्हारे ही बनाए अटूट नियम को।
फिर वे पहाड़!
क्या क्या थपोड़ कर नहीं बनाया गया उन्हें?
और बगैर बिजली के चालू कर दी उनसे जो नदियाँ, वो?
सूंड हाथी को भी दी और चींटीको भी
एक ही सी कारआमद अपनी-अपनी जगह
हाँ, हाथी की सूंड में दो छेद भी हैंअलग से
शायद शोभा के वास्ते
वर्ना सांस तो कहीं से भी ली जा सकती थी
जैसे मछलियाँ ही ले लेती हैं गलफड़ों से।
अरे, कुत्ते की
उस पतली गुलाबी जीभ का ही क्या कहना!
कैसी रसीली और चिकनी टपकदार,
सृष्टि के हरस्वाद की मर्मज्ञ
और दुम की तो बात ही अलग
गोया एक अदृश्य पंखे की मूठ
तुम्हारे ही मुखड़े पर झलती हुई।
आदमी बनाया,
बनाया अंतड़ियों और रसायनों का क्या ही तंत्रजाल
और उसे दे दिया कैसा अलग सा दिमाग
ऊपर बताई हर चीज़ को आत्मसात करने वाला
पल भर में ब्रह्माण्ड के आर-पार
और सोया तो बस सोया
सर्दी भर कीचड़ में मेढक सा
हाँ एक अंतहीन सूची है भगवान तुम्हारे कारनामों की,
जो बखानी जाए जैसा कि कहा ही जाता है।
यह ज़रूर समझ में नहीं आता कि
फिर क्यों बंद कर दिया अपना इतना कामयाब कारखाना?
नहीं निकली कोई नदी पिछले चार-पांच सौ सालों से
जहाँ तक मैं जानता हूँ बना कोई पहाड़ या समुद्र
एकाध ज्वालामुखी ज़रूर फूटते दिखाई दे जाते हैं कभी-कभार।
बाढ़ेँ तो आयीं खैर भरपूर,
काफी भूकंप,तूफ़ान खून से लबालब हत्याकांड अलबत्ता हुए खूब
खूब अकाल, युद्ध एक से एक
तकनीकी चमत्कार
रह गई सिर्फ एक सी भूख,
लगभग एक सी फौजी वर्दियां जैसे
मनुष्यमात्र की एकता प्रमाणित करने के लिए
एक जैसी हुंकार, हाहाकार!
प्रार्थनाग्रृह ज़रूर उठाये गए एक से एक आलीशान!
मगर भीतर चिने हुए रक्त के गारे से
वे खोखले आत्माहीन शिखर-गुम्बद-मीनार
ऊँगली से छूते ही जिन्हें रिस आता है खून!
आखिर यह किनके हाथों सौंप दिया है ईश्वर
तुमने अपना इतना बड़ा कारोबार?
अपना कारखाना बंद कर के किस घोंसले में जा छिपे हो भगवान?
कौन - सा है वह सातवाँ आसमान?
हे, अरे, अबे, करुणानिधान !!!

वीरेन
दा की सारी कविताएँ कुदरत के इसी तरह के रहस्यों और विरोधाभासों पर एक अद्भुत और अनोखी नज़र हैं उनकी रचनाओं में आज की जिंदगी का हाल है तो भी एक अपूर्व अंदाजे बयां के साथ।

जारी .......

7 comments:

Prakash Badal said...

अशोक भाई,

वीरेन दा के बारे में जानकर खुशी हुई। क्या ये आपका दूसरा ब्लॉग है?

Richa Joshi said...

भाई अशोक जी,
वीरेन दा पर ब्‍लाग लिखकर आपने एक पुनीत कार्य शुरू किया है। इसे जारी रखिए। वैसे ये काम ऐसा है जैसे मरकरी लाइट में आप मोमबत्‍ती जलाकर कुछ और प्रकाश बढ़ाने का काम करें।

अभिषेक मिश्र said...

hamein to inke bare mein pehle se nahin pata tha. Jaankari ka aabhar.

Ashok K Sharma said...

आप सभी की प्रतिक्रियाओं के लिये धन्यवाद।
इस सिलसिले को काफी आगे तक ले जाऊँगा।

यदि आप में से कोई भी इस ब्लॉग का लेखक या योगदाता बनना चाहता है तो पुरुषों का खुली बाहों और महिलाओं का खुले दिमाग से स्वागत है।

हाँ एक बात और..यह मेरा पहला ब्लॉग नहीं है। मेरा प्रोफाइल देखें समझ जाएंगे आप..

siddheshwar singh said...

बहुत अच्छा लगा साहब अपने समय के एक अच्छे इंसान और अच्छे कवि पर अपका यह ब्लाग देखकर.

अगर समय मिले तो इसे भी देख लेंगे-

http://kabaadkhaana.blogspot.com/2007/10/blog-post_7800.html

और

http://karmnasha.blogspot.com/2008/08/blog-post_05.html

Tarun said...

आपके और विरेनदा के बारे में यहाँ लिख चुका हूँ, अच्छा किया आपने इन पर ब्लोग बनाकर

वर्ड वेरीफिकेशन हटा लें तो टिप्पणी करने वालों के लिये लाईफ थोड़ा अआसान हो जाती है।

संगीता पुरी said...

बहुत सुंदर...आपके इस सुंदर से चिटठे के साथ आपका ब्‍लाग जगत में स्‍वागत है.....आशा है , आप अपनी प्रतिभा से हिन्‍दी चिटठा जगत को समृद्ध करने और हिन्‍दी पाठको को ज्ञान बांटने के साथ साथ खुद भी सफलता प्राप्‍त करेंगे .....हमारी शुभकामनाएं आपके साथ हैं।