अवैधानिक चेतावनी :
ये शायद साहित्य की दुनिया की पहली जीवनी है जिसमें जीवनी से पहले चेतावनी को महत्व दिया गया है। चेतावनी इसलिये क्योंकि भूल से भी कोई इसे वीरेन डंगवाल पर शोध या वीरेन डंगवाल समग्र समझने का धोखा ना खा जाये। यह शोध इसलिये नहीं है क्योंकि इसमें निष्कर्ष नहीं है कि वीरेन डंगवाल क्या हैं? उनकी सीमाएं और संभावनाएं कहाँ तक हैं? वगैरा.. यह ब्लॉग वीरेन डंगवाल समग्र इसलिये नहीं है, क्योंकि उन्हें देखने के लिये दो आंखें और समझने के लिये एक दिमाग नाकाफी है। ये ब्लॉग उनके बारे में मोहब्बत और श्रृद्धा के उद्वेगों का नतीजा है। इसमे दिमाग की कसरत की कसर रह जाने की भी मुक्कमल संभावना है। सो इसे संभल कर ही पढ़ा जाये। लेखक की तरफ़ से किसी बात की गारंटी नही है पर यहाँ जितना लिखा है, है सभी सच ही...
वीरेंद्र डंगवाल मतलब वीरेनदा
ये आजाद ख्याल इंसान आजादीवाले साल ५ अगस्त १९४७ में कीर्तिनगर, टिहरी में (तब उत्तर प्रदेश में था अब उत्तराँचल प्रान्त में) पैदा हुआ था। उनकी माँ एक मिलनसार धर्मपरायण गृहणी थीं और पिता स्वर्गीय रघुनन्दन प्रसाद डंगवाल प्रदेश सरकार में कमिश्नरी के प्रथम श्रेणी अधिकारी।
ये शायद साहित्य की दुनिया की पहली जीवनी है जिसमें जीवनी से पहले चेतावनी को महत्व दिया गया है। चेतावनी इसलिये क्योंकि भूल से भी कोई इसे वीरेन डंगवाल पर शोध या वीरेन डंगवाल समग्र समझने का धोखा ना खा जाये। यह शोध इसलिये नहीं है क्योंकि इसमें निष्कर्ष नहीं है कि वीरेन डंगवाल क्या हैं? उनकी सीमाएं और संभावनाएं कहाँ तक हैं? वगैरा.. यह ब्लॉग वीरेन डंगवाल समग्र इसलिये नहीं है, क्योंकि उन्हें देखने के लिये दो आंखें और समझने के लिये एक दिमाग नाकाफी है। ये ब्लॉग उनके बारे में मोहब्बत और श्रृद्धा के उद्वेगों का नतीजा है। इसमे दिमाग की कसरत की कसर रह जाने की भी मुक्कमल संभावना है। सो इसे संभल कर ही पढ़ा जाये। लेखक की तरफ़ से किसी बात की गारंटी नही है पर यहाँ जितना लिखा है, है सभी सच ही...
वीरेंद्र डंगवाल मतलब वीरेनदा
ये आजाद ख्याल इंसान आजादीवाले साल ५ अगस्त १९४७ में कीर्तिनगर, टिहरी में (तब उत्तर प्रदेश में था अब उत्तराँचल प्रान्त में) पैदा हुआ था। उनकी माँ एक मिलनसार धर्मपरायण गृहणी थीं और पिता स्वर्गीय रघुनन्दन प्रसाद डंगवाल प्रदेश सरकार में कमिश्नरी के प्रथम श्रेणी अधिकारी।
उनकी रूचि कविताओं कहानियो दोनों में रही है। बाईस साल की उम्र में उन्होनें पहली रचना, एक कविता लिखी और फिर देश की तमाम स्तरीय साहित्यिक पत्र पत्रिकाओं में लगातार छपते रहे। उन्होनें १९७०- ७५ के बीच ही हिन्दी जगत में खासी शोहरत हासिल कर ली थी।
उनकी प्रसिद्ध कृतियों में हैं इसी दुनिया में (कविता संग्रह), नाजिम हिकमत की कवितायें (अनुवाद)।
अब तक उन्हें रघुवीर सहाय स्मृति पुरस्कार (1992), श्रीकान्त वर्मा स्मृति पुरस्कार (1994) तथा शमशेर सम्मान (२००२) मिल चुका है। पेशे से हिन्दी के प्रोफ़ेसर। शौक से बेइंतहा कामयाब पत्रकार। आत्मा से कवि। बुनियादी तौर पर एक अच्छे- सच्चे इंसान। उम्र ६० को छू चुकी। पत्नी रीता भी शिक्षक। दोनों बरेली में रहते हैं।
वीरेन बरेली कॉलेज में हिन्दी पढाते हैं। बरेली के अमर उजाला अख़बार के स्थानीय संपादक हैं। उनके दो बेटे प्रशांत और प्रफुल्ल कारपोरेट अधिकारी हैं और सेटल हो चुके हैं। शिक्षक वीरेनदा के लगभग सभी पुराने चेले आज बडे आदमी बन चुके हैं। दरअसल वीरेन जी को बडे आदमी बनाने संवारने का शौक है। उनकी भगवान् में काफी श्रद्धा है मगर वो भगवान् को मख्खन नहीं लगाते दुष्चक्र में सृष्टा में उनकी इसी नामवाली कविता दरअसल इसी तरह की सोच का नतीजा है। मुलाहिजा हो...
वीरेन बरेली कॉलेज में हिन्दी पढाते हैं। बरेली के अमर उजाला अख़बार के स्थानीय संपादक हैं। उनके दो बेटे प्रशांत और प्रफुल्ल कारपोरेट अधिकारी हैं और सेटल हो चुके हैं। शिक्षक वीरेनदा के लगभग सभी पुराने चेले आज बडे आदमी बन चुके हैं। दरअसल वीरेन जी को बडे आदमी बनाने संवारने का शौक है। उनकी भगवान् में काफी श्रद्धा है मगर वो भगवान् को मख्खन नहीं लगाते दुष्चक्र में सृष्टा में उनकी इसी नामवाली कविता दरअसल इसी तरह की सोच का नतीजा है। मुलाहिजा हो...
कमाल है तुम्हारी कारीगरी का भगवान, क्या-क्या बना दिया, बना दिया क्या से क्या!
छिपकली को ही ले लो,कैसे पुरखोंकी बेटी
छत पर उल्टासरपट भागती छलती तुम्हारे ही बनाए अटूट नियम को।क्या क्या थपोड़ कर नहीं बनाया गया उन्हें?
और बगैर बिजली के चालू कर दी उनसे जो नदियाँ, वो? सूंड हाथी को भी दी और चींटीको भी
एक ही सी कारआमद अपनी-अपनी जगहअरे, कुत्ते की
उस पतली गुलाबी जीभ का ही क्या कहना!
कैसी रसीली और चिकनी टपकदार, उस पतली गुलाबी जीभ का ही क्या कहना!
सृष्टि के हरस्वाद की मर्मज्ञ
और दुम की तो बात ही अलगबनाया अंतड़ियों और रसायनों का क्या ही तंत्रजाल
और उसे दे दिया कैसा अलग सा दिमागऊपर बताई हर चीज़ को आत्मसात करने वाला
पल भर में ब्रह्माण्ड के आर-पारहाँ एक अंतहीन सूची है भगवान तुम्हारे कारनामों की,
जो बखानी न जाए जैसा कि कहा ही जाता है।यह ज़रूर समझ में नहीं आता कि
फिर क्यों बंद कर दिया अपना इतना कामयाब कारखाना? नहीं निकली कोई नदी पिछले चार-पांच सौ सालों से
जहाँ तक मैं जानता हूँ न बना कोई पहाड़ या समुद्रकाफी भूकंप,तूफ़ान खून से लबालब हत्याकांड अलबत्ता हुए खूब
खूब अकाल, युद्ध एक से एकलगभग एक सी फौजी वर्दियां जैसे
मनुष्यमात्र की एकता प्रमाणित करने के लिएप्रार्थनाग्रृह ज़रूर उठाये गए एक से एक आलीशान!
मगर भीतर चिने हुए रक्त के गारे सेआखिर यह किनके हाथों सौंप दिया है ईश्वर
तुमने अपना इतना बड़ा कारोबार?अपना कारखाना बंद कर के किस घोंसले में जा छिपे हो भगवान?
कौन - सा है वह सातवाँ आसमान?हे, अरे, अबे, ओ करुणानिधान !!!
वीरेन दा की सारी कविताएँ कुदरत के इसी तरह के रहस्यों और विरोधाभासों पर एक अद्भुत और अनोखी नज़र हैं। उनकी रचनाओं में आज की जिंदगी का हाल है तो भी एक अपूर्व अंदाजे बयां के साथ।
जारी .......